वांछित मन्त्र चुनें

प्र वा॑मश्नोतु सुष्टु॒तिरिन्द्रा॑वरुण॒ यां हु॒वे। यामृ॒धाथे॑ स॒धस्तु॑तिम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vām aśnotu suṣṭutir indrāvaruṇa yāṁ huve | yām ṛdhāthe sadhastutim ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वा॒म्। अ॒श्नो॒तु॒। सुऽस्तु॒तिः। इन्द्रा॑वरुणा। याम्। हु॒वे। याम्। ऋ॒धाथे॑ इति॑। स॒धऽस्तु॑तिम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:17» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:33» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:9


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त इन्द्र और वरुण के यथायोग्य गुणकीर्त्तन करने की योग्यता का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - मैं जिस प्रकार से इस संसार में जिन इन्द्र और वरुण के गुणों की यह (सुष्टुतिः) अच्छी स्तुति (प्राश्नोतु) अच्छी प्रकार व्याप्त होवे, उसको (हुवे) ग्रहण करता हूँ, और (याम्) जिस (सधस्तुतिम्) कीर्त्ति के साथ शिल्पविद्या को (वाम्) जो (इन्द्रावरुणौ) इन्द्र और वरुण (ऋधाथे) बढ़ाते हैं, उस शिल्पविद्या को (हुवे) ग्रहण करता हूँ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जिस पदार्थ के जैसे गुण हैं, उनको वैसे ही जानकर और उनसे सदैव उपकार ग्रहण करना चाहिये, इस प्रकार ईश्वर का उपदेश है॥९॥पूर्वोक्त सोलहवें सूक्त के अनुयोगी मित्र और वरुण के अर्थ का इस सूक्त में प्रतिपादन करने से इस सत्रहवें सूक्त के अर्थ के साथ सोलहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति करनी चाहिये।इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने कुछ का कुछ ही वर्णन किया है॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

एतयोर्यथायोग्यगुणस्तवनं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।

अन्वय:

अहं यथात्रेयं सुष्टुतिः प्राश्नोतु प्रकृष्टतया व्याप्नोतु तथा हुवे वां यौ मित्रावरुणौ यां सधस्तुतिमृधाथे वर्धयतस्तां चाहं हुवे॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (वाम्) यौ तौ वा। अत्र व्यत्ययः। (अश्नोतु) व्याप्नोतु (सुष्टुतिः) शोभना चासौ गुणस्तुतिश्च सा (इन्द्रावरुणा) पूर्वोक्तौ। अत्रापि सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशो वर्णव्यत्ययेन ह्रस्वत्वं च। (याम्) स्तुतिम् (हुवे) आददे। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (याम्) शिल्पक्रियाम् (ऋधाथे) वर्धयतः। अत्र व्यत्ययो बहुलं छन्दसि इति विकरणाभावश्च (सधस्तुतिम्) स्तुत्या सह वर्त्तते ताम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन हकारस्य धकारः॥९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यस्य पदार्थस्य यादृशा गुणाः सन्ति तादृशान् सुविचारेण विदित्वा तैरुपकारः सदैव ग्राह्य इतीश्वरोपदेशः॥९॥पूर्वस्य षोडशसूक्तस्यार्थानुयोगिनोर्मित्रावरुणार्थयोरत्र प्रतिपादनात्सप्तदशसूक्तार्थेन सह तदर्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपदेशवासिभिरध्यापक-विलसनाख्यादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी ज्या पदार्थांचे जसे गुण असतात त्यांना तसे जाणून त्यांचा सदैव उपयोग करून घ्यावा, असा ईश्वराचा उपदेश आहे. ॥ ९ ॥
टिप्पणी: या सूक्ताचाही अर्थ सायणाचार्य इत्यादी व युरोपदेशवासी विल्सन यांनी वेगळाच लावलेला आहे.